रात आती है तेरी याद चली आती है
किस शहर से तेरी आवाज चली आती है
चाँद ने खूब सहा है सूरज की अगन
तेरी ये आग मुझसे न सही जाता है
दिल में उतरी है तेरी दर्द भरी आँखें
मेरी आँखों में वही प्यास जगी जाती है
हमने देखा था खुद को तेरी सूरत में
आईना देखकर अब रात कटी जाती है
हम रोने का हुनर सीख गए
तुम आकर आँसू में भींज गए
मेरे जज़्बात के हर कतरे में
तुम बहने की अदाएँ सीख गए
फिजा की बिखरी यादों में
फूलों में सँवरे काँटों में
कायनात के दर्द की सोहबत में
हम जीना-मरना सीख गए
शाम की धुंधली राहों पर
गम की अँधेरी रातों पर
ख्वाब के टूटे शीशों पर
मुस्कुरा के चलना सीख गए
जख़्म के पहलू में सोकर
नग़मों को कागज पे लिखकर
अपनों के प्यार से दूर होकर
हम जीवन जीना सीख गए
~~~ Zindagi ki raho me ishq na mile,
Is bedard zamane se kuch na mile,
Hum gum Kyon kare ki wo hame na mile,
ARE…!! Gam to wo kare jinhe hum na mile ~•~
~~~ Be-khabar ho gaye hai kuch log humse,
jo hamari zarurat ko mehsoos nahi karte..
kabhi bhot baaten kiya krte the hum se,
ab kheriyat tak maloom nahi karte.~~~
~~~ Intzar Ki Aarzu Ab Kho Gayi Hai,
Khamoshiyo Ki Aadat Ho Gayi Hai,
Na Sikwa Raha Na Shikayt Kisi Se,
Agar Hai To Ek Mohbbat,
Jo In Tanhayion Se Ho Gayi Hai..!
आजमा कर देखिए हर शख्स को दुनिया में
वो पहले वफा दिखाते हैं, फिर दगा करते हैं
वफा करते हैं ताकि ऐतबार वो पा ले आपका
फिर बेवफाई का फर्ज वो अदा करते हैं
वो अपना काम निकालते हैं कुछ इस हुनर से
कि आप धोखे खाकर भी उनसे मिला करते हैं
आपकी जान कब वो लेगा, ये खबर नहीं आपको
और आप उनकी सलामती की दुआ करते हैं
एक दिन दिल तोड़ता है वो शख्स मुस्कुराकर
रो-रो के तब खुद ही से आप गिला करते हैं
होता है तज़रबा ऐसा कि दुनिया की राह पे
आदमी से बच-बच कर आप चला करते हैं
परायों को तो खैर आप दुश्मन समझते ही हैं
अपनों से भी डर-डर कर रहा करते हैं
कोसते रहते हैं अपनी जिंदगी को उम्रभर
भीड़ में हंसते हैं मगर तन्हाई में रोया करते हैं
अब जानेमन तू तो नहीं, शिकवा-ए-गम किससे कहें
या चुप रहें या रो पड़ें, किस्सा-ए-गम किससे कहें
मुझे देखते ही हर निगाह पत्थर सी क्यूं हो गई
जिसे देख दिल हुआ उदास,हैं आंखें नम,किससे कहें
इस शहर की वीरां गुलशनें, हैं फूल कम, कांटे कई
दामन मेरा छलनी हुआ, हम दर्दो-गम किससे कहें
कोई रहगुज़र तो देर तक टिकता नहीं कदमों तले
तेरा निशां है कहीं नहीं, मंज़िल न सनम, किससे कहें
एक तक़लीफ़ उमड़ती है मेरे सीने में
अरे बेदर्द आता है क्यूँ आँसू बनकर
आज सँवरी हूं आईने में बस तेरे लिए
आज फिर बिखर जाएगा कजरा बहकर
अपने आँचल की घूँघट ओढ़कर
तेरी दुल्हन रोती है राह देखकर
तू न आया है, न तू आएगा
आज फिर बिखर जाएगा कजरा बहकर
कहां रहता है इस बेरहम ज़माने में
मन में आता है, सामने क्यूँ नहीं आता
ओ सलोने तेरी याद में रो-रोकर
आज बिखर जाएगा कजरा बहकर
सोलहवाँ साल बीता है जाने कबके
कई रूत आके गुजरी है दुख देकर
एक नई रात दुख की घिर आई है
आज फिर बिखर जाएगा कजरा बहकर
चल पड़ा हूँ किधर, जबसे छूटा है घर
और बिछड़ा है मेरा हसीं हमसफर
चल पड़ा हूँ किधर, जाने कौन शहर
अपने साये से रुखसत हुआ था कभी
जब दीये बुझ गए मुफ़लिसी में सभी
अब अंधेरे में रहता हूँ आठों पहर
चल पड़ा हूँ किधर, जाने कौन शहर
कोशिशें की बहुत, हौसले थे मगर
हो गया चाक मेरा ये नाज़ुक जिगर
फिर भी मिल न सका इश्क में रहगुज़र
चल पड़ा हूँ किधर, जाने कौन शहर
सागर से उठे थे धुएँ की तरह
फिर हवा में उड़े पंछियों की तरह
और घटा बनके एक दिन बरसी नज़र
चल पड़ा हूँ किधर, जाने कौन शहर
जख़्म दर जख़्म हम पाते गए कुछ न कुछ
हर दर्द हर गम पे गाते गए कुछ न कुछ
जो मुझे एक पल की खुशी दे न सके
वो हर पल सितम ढ़ाते गए कुछ न कुछ
हर मंजिल पे एक किनारा दिखता था मगर
उसके बाद एक रोता समंदर भी रहता था
हम नहीं गए उस किनारे पे दिल के लिए
जहाँ आँसू न थे पहले से कुछ न कुछ
मेरी मुंतज़िर निग़ाहों को हुस्न का रूप मिला
मेरे बेकरार रूह को दर्द का धूप मिला
चाँद तो बस दूर से ही नूर को बिखराती रही
मगर देती रही बुझते चिराग को कुछ न कुछ
हमें अफसोस नहीं कि तुझे देखा नहीं जी भर के
तेरी तस्वीर तो तेरे आने से पहले सीने में थी
तू आके बस दरस दिखा के गुजर गई
अब उम्रभर तेरे बारे सोचना है कुछ न कुछ